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क्या बिना बिजली के फसलो की सिंचाई संभव है ?

 

यह एक आम धारणा बन गयी है की आदिवासी समाज पिछड़ा हुआ शोषित समाज है और इस समाज को मुख्य धारा में लाने की आवश्यकता है . देश के नीति निर्माता हमारे राजनेता भी कई दशको से यही राग अलापते आ रहें है, इसलिए शहरों में रहने वाली आबादी को भी यही लगता है की आदिवासी समाज को उन्नत करने के लिए उन्हें शिक्षित और विलायती तौर तरीके सिखाने की आवश्यकता है .

आदिवासी समाज को शायद ही किसी उन्नयन की आवश्यकता हो . इस बात का प्रमाण मध्यप्रदेश के धार जिले की डही तहसील के पडियाल और पीथनपुर  गाँव में देखने को मिलता है . यहाँ आदिवासीयों द्वारा विकसित की गयी सिंचाई तकनीक गुरत्वाकर्षण के नियम को धता बताती नज़र आती है . यहां पानी को आवश्यकता अनुसार मोड़ कर पहाड़ी पर स्थित अपने खेतों में बिना किसी आधुनिक उपकरण के पानी ले जाते है . इस तकनीक को यहां “पाट” प्रणाली कहा जाता है और हम इसे उद्ध्वंत सिंचाई या लिफ्ट इरीगेशन के नाम से जानते है .

हर किसी के मन में यह प्रश्न आयेगा की ऐसा करना तो लगभग ना मुमकिन है, बिना किसी उपकरण की मदद के,  गुरत्वाकर्षण के नियम के विरूद्ध पानी को कई मीटर ऊपर पहाड़ो को कैसे ले जाया जा सकता है ? पाट सिंचाई प्रणाली में नीचे की और बहाने वाले किसी नाले या नदी का चयन कर उस समभूमि की तलाश की जाती  है जो खेत की उंचाई के समानांतर हो . इस स्थान पर मिट्टी और पत्थरों की मदद से एक बाँध बनाया जाता है. पानी को रोकने की व्यवस्था कर लेने के बाद नालियों के माध्यम से किनारे किनारे खेत तक पानी ले जाया जाता है . यहां नालियों के निर्माण में आदिवासियों की अपकेंद्री और अभिकेन्द्री बल की नैसर्गिक समझ पानी को खेतो तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है . इन नालियों के निर्माण में जहां जहां बड़े गढ्डे आते है वहां पेड़ो के खोखले तनो को पाइप की तरह इस्तेमाल करके  पानी के लिए रास्ता बनाया जाता है .

इन नालियों को विकेन्द्रित कर छोटी नालियों के माध्यम के अलग अलग खेतों में पानी पहुँचाया जाता है . आपको यह जान कर हैरानी होगी की इस प्रणाली के माध्यम से 30 – 40 हार्सपाँवर की क्षमता के समकक्ष सिंचाई की जा सकती है, अर्थात एक 5 हार्सपाँवर की विद्युत मोटर 1 घंटे में 40,000 लीटर पानी उत्सर्जित करती है, तो इस प्रणाली से लगभग एक घंटे में 2,40,000 लीटर पानी एक घंटे में प्राप्त किया जा सकता है . सामन्यात: 1 हेक्टेयर में गेंहू, मक्का आदि फसलो को पूर्ण रूप से तैयार करने में 12 लाख लीटर पानी की आवश्यकता होती है . आप कल्पना कर सकते है की कृषि को सरल बनाने की यह कितनी युक्तिसंगत प्रणाली है .

अब आप स्वयं समझ सखते है किसे सिखाने और किसे सिखाने की आवश्यकता है ? कौन आधुनिक समाज में जी रहा है ? कौन प्रकृति को नुकसान पहुंचाये बिना विकास की और अग्रसर है ? पर दुःख इस बात का है की सिंचाई के वर्तमान साधनों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ साथ “पाट” प्रणाली को लुप्त होने की कगार पर पहुंचा दिया है . काश हमारे राजनेता प्राचीन प्रणालियों के माध्यम के सिंचाई की योजनाये विकसित करते तो शासन के पैसे का अपव्यय तो कम होता ही साथ ही साथ एक अत्यंत आधुनिक प्रणाली भी फलफूल रही होती .

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डिस्पोज़ल मानव जाति को ही डिस्पोज़ ऑफ ना कर दे

मुझे जानने वाले बहुत से लोगों को यह पता ही होगा के मेरे घर के पास एक चाय की दुकान है।  वहां चाय के साथ-साथ आप गरमा – गरम  पोहा, जलेबी, समोसा , कचोरी और सब्जी पुरी की भी आनंद ले सकते है। बेरोज़गारी के इन 2 महिनो में शायद ही ऐसा कोई दिन बीता होगा, जब मैं वहां दिन में एक दो बार चाय पीने ना गया हूँ।  आज दोपहर, मैं  वहां पहुंचा तो मैने वहां काम करने वाले एक कर्मचारी को चाय लाने के लिए कहा, चाय का स्वाद तो वही था परन्तु एक विशेष विषयवस्तु की ओर मेरा ध्यानाकर्षित हुआ।  आज चाय डिस्पोज़ल ग्लास में परोसी गयी और जो लोग वहां भोजन कर रहे थे , वह भी डिस्पोज़ल थालियों में ही खाना खा रहे थे।  यह हम सब जानते है कि, वह उत्पाद जिनका उपयोग हम डिस्पोज़ल के नाम पर करते है वह कितने जैवनिम्निकृत होते है।  जैवनिम्निकृत अर्थात biodegradable, यानी स्वयं नष्ट हो जाने वाला।  Clean_India_logo_650

भारत के 200 प्रमुख शहरो में 18 करोड़ 18 लाख 77 हज़ार 585 (जनगणना 2011) नागरिक निवास करते है। केन्द्रिय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के द्वारा करवाये गये 59 शहरों (35  महानगर व 23 राज्यों की राजधानी 2004 – 2005) के  सर्वेक्षण अनुसार, इन शहरो मे प्रतिवर्ष 1 लाख मैट्रिक टन कचरा उत्पन्न होता है। इस रिपोर्ट के अनुसार जब इन्दौर शहर की आबादी 14 लाख 74 हज़ार 968 थी (जनगणना 2001) अर्थात 557 टन प्रतिवर्ष, तब कचरा उत्पादन की दर 0.38 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति दिन थी, तो आप भारत की वर्तमान स्तिथि का अन्दाज़ा लगा सकते है।  कूड़े  के परिपेक्ष्य में जहां तक जैवनिम्निकरण कचरे की बात है वहां, तो स्तिथि कुछ नियन्त्रित प्रतीत होती है , परन्तु अगर हम प्लास्टिक व तथाकथित डिस्पोज़ल की बात करें तो स्थिति भयावह है । सरकार द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, मध्यप्रदेश में प्रतिवर्ष 16 करोड़ 19 लाख 65 हज़ार 100 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न हो रहा है।  प्रदेश में प्लास्टिक उत्पाद बनाने वाले  उद्योगो में से 69 पंजीकृत है और 34 यह कार्य अनाधिकृत रुप से कर रहें हैं।  आपको यह जान कर हैरानी होगी कि, शासन द्वारा अवैध रुप से संचालित इन उद्योगों पर कोइ कार्यवाही नही की गयी है।  खानापूर्ति के नाम पर मापदण्ड के विरुद्ध प्लास्टिक उत्त्पाद इस्तेमाल करने वालों पर कुछ शास्ति ज़रूर अधिरोपित की गई है।

पने यह गौर किया होगा कि पिछ्ले एक दशक से भारत देश में विभिन्न बिमारियों से पीड़ित रोगियों की संख्या में अचानक वृध्दि हुई है।  क्या आपके मन में यह प्रश्न उत्पन्न नही होता कि, ऐसा क्यूं ? शायद आपमें से बहुत कम जानते होंगे कि, कौन – कौन से प्लास्टिक उत्पादों के कारण किस – किस तरह के रोग़ होते है।

पॉलीविनियल क्लोराइड :  उपयोग : फ़ूड पैकेजिंग, प्लास्टिक रैप, सौंदर्य प्रसाधन, खिलौने इत्यादि।

रोग : कैंसर, जन्मजात विकृतियां, क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस, अल्सर, चर्म रोग, बहरापन, अजीर्णता, लीवर विकृति।

फ्थलेट्स (डी ई एच पी) (डी आई एच पी): उपयोग : विनायल के कपड़े, इमल्शन पेंट, ब्लड बैग, कृत्रिम रक्त एवं श्वांस नलिकाएं, इत्यादि।

रोग :  अस्थमा, चिकित्सीय उपयोग के कूड़े को जलाने के बाद उत्पन्न होने वाले पारे से कैंसर, बांझपन, हार्मोन अस्थिरता, शुक्राणुओं की संख्या में कमी।

पॉलीकार्बोनेट के साथ बिसफिनॉल ए : उपयोग : पानी की बॉटल।

रोग : कैंसर, रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी, मोटापा, मधुमेह, अतिक्रियाशीलता इत्यादि।

पॉलीस्टरीन : उपयोग : मांस, मछली, दही, बेकरी उत्पादों को पैक करने में इस्तेमाल किये जाने वाले डिब्बे, डिस्पोज़ल थालियां और कप, खिलौने।

रोग : आँख, नाक और गले में जलन, चक्कर आने के साथ बेहोशी, लसीका का कैंसर।

प्लास्टिक के ऐसे अन्य 6 और प्रकार है, जो हमारे जीवन का हिस्सा गये है।  जैसे कोल्डड्रिंक की बॉटल, पानी के गिलास, प्लास्टिक बैग, रसोई के बर्तन, खाने को गर्म रखने वाली पैकेजिंग, डायपर, प्लाईवुड, गद्दे, तकिये, चादर, गलीचे, नॉन स्टिक बर्तन इत्यादि आपके जीवन को अस्वस्थ और आपको बहुत बीमार बनाने के लिए काफी है।

courtesy: Ms. Usha Athaley  रायगढ़ जिले के ग्राम तिलगा में पत्तल-दोना बनाती महिला
courtesy: Ms. Usha Athaley रायगढ़ जिले के ग्राम तिलगा में पत्तल-दोना बनाती महिला

मुझे याद आता है कि, आज से लगभग डेढ़ दशक पहले जब किसी के घर सामूहिक भोज का आयोजन होता था, तो आयोजनकर्ता अपनी क्षमता के अनुरूप धातु की थाली में या पलाश के पत्तो से बने पत्तल में भोजन करवाता था और भोजन ज़मीन पर बैठ कर किया जाता था।  वैज्ञानिक यह सिद्ध कर चुके है की बैठकर भोजन करना सर्वोत्तम है और पलाश के पत्तलो में परोसा गया भोजन केले के पत्ते के सामान ही गुणकारी है।  मुझे यह देखकर बड़ी हैरानी होती है कि , आदिवासी अंचलो में भी अब लैमिनेटेड कागज़ की थालियों में भोजन परोसा जाने लगा है।  पूर्व में अगर कोई आदिवासी सामूहिक भोज  देता था, तो उसके परिवार के सदस्य जंगलो में  कर पलाश और सागौन के पत्ते इकट्ठा कर पत्तल बनाते थे और अतिथियों इन पत्तलो में भोजन परोसा जाता था।  यकीन मानिए यह प्रथा कुछ वर्षो पहले तक जीवित थी।

अंग्रेज़ो  द्वारा करवाये गए सर्वेक्षण के अनुसार 1911 में  मध्य भारत के जबलपुर और मण्डला  में ” बारि ”  जाति की आबादी 1200 के लगभग थी।  ” बारि ” जाति के लोगों का पुश्तैनी व्यवसाय पत्तल बनाने का था।  इस जाति उल्लेख इस लिये आवश्यक था क्यूंकि बारि और कुम्हार वह जातियां है जो इस देश में कचरा प्रबंधन का कार्य सैंकड़ो वर्षो से कर रही है।यह इस देश का दुर्भाग्य है कि, वर्तमान में उल्लेखित जातियों की आर्थिक स्तिथि ठीक नहीं है।

रा विचार करें  मिट्टी के बर्तन टूट के पुनः  मिट्टी  बन जाते है और पत्तल कुछ समय बाद अपघटित हो कर उर्वरक,फल – सब्जियां कपड़े की थैलियों में घर ला सकते है और दूध-दही-घी -छांछ केटली में, किराणे के सामान और मांस-मछली पहले की तरह कागज़ में खरीदी जा सकती है।  क्या यह इतना दुष्कर कार्य है ? कहीं ऐसा ना हो की डिस्पोज़ल मानव जाति को ही डिस्पोज़ ऑफ ना कर दे !      Mitti Cool Products