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शासन की अवहेलना की शिकार भारत की सर्वोत्कृष्ट वर्षा जल संरक्षण प्रणाली

कुछ माह पूर्व मध्यप्रदेश के धार जिले के सभी प्रमुख समाचार पत्रों में मांडव के सम्बन्ध में एक समाचार प्रमुखता से प्रकाशित किया गया था. समाचार का मुख्य शीर्षक ” 2018 से मांडव को मिलने लगेगा नर्मदा जल ” या “नर्मदा से लिफ्ट करेंगे जल, धार – मांडव को मिलेगा पानी” ऐसा ही कुछ था . इस परियोजना की कुल लागत  20 करोड़ 25 लाख रुपये बताई जा रही है. आपको लग रहा होगा इसमें कौन सी बड़ी बात है, आम जनता को जल संकट से बचाने के लिए और पेयजल उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए शासन द्वारा निर्णय लिया गया होगा, परन्तु मेरा दृष्टिकोण कुछ अलग है. इस लेख के माध्यम से में आपको मांडव के कुछ अनछुए पहलुओ से अवगत करवाना चाहता हूँ .

ऐसा माना जाता है 8 वी शताब्दी में परमार राजओं द्वारा स्थापित माण्डव की आबादी 4 – 5 लाख थी, यह आबादी वर्तमान में घट कर कुछ 25 हज़ार के आस पास रह गयी है. यह जाहिर सी बात है कि, इतनी बड़ी आबादी के लिए मूलभूत सुविधाओं में सबसे आवश्यक “जल प्रबंधन”, तत्कालीन शासको के लिए एक चुनौती से कम नहीं होगा. तथाकथित रूप तकनीक में पिछड़े हुए यहाँ के शासको की दूरदृष्टि ने माण्डव में कुछ ऐसा कर दिया जो आज हमें हैरानी में डाल देता है और सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह माण्डव आने वाले अधिकतम पर्यटक इस तथ्य से अपरिचित है .

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रानी रूपमती महल का प्रथम तल

आपको यह जान कर हैरानी होगी की पुराकाल में  माण्डव में  40 तालाब, 70 स्टापडैम  व 1200 बावड़िया और कुंए थे और इन समस्त संरचनाओ का आधार वर्षा जल प्रबंधन था. माण्डव के सुप्रसिद्ध रानी रूपमती महल में वर्षाजल को संगृहीत कर पहली मंजिल पर उतारा जाता था, यहाँ कोयले और रेत के माध्यम से फ़िल्टर करने के बाद इस पानी को एक बड़े कुण्ड में एकत्र किया जाता था . इस महल में दो कुण्ड है एक छोटा और दुसरा बड़ा इसे रेवा कुण्ड के नाम से भी जाना जाता है. बड़े कुण्ड में नीछे उतरने के प्रबंध के साथ साथ पानी के आवक के साथ, जावक की भी प्रणाली है . यहाँ का पानी लिफ्ट कर सामने स्थित बाजबहादुर के महल में पहुँचाया जाता था.

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नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर में निर्मित नागफनी

माण्डव का नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर वर्षा जल प्रबंधन का अत्यंत सुन्दर उदाहरण है. मीराबाई बाई की जिरात वाली पहाड़ी से बहते हुए जल महादेव मंदिर के ऊपर निर्मित एक तालाब में एकत्रित होता है और इस तालाब का ओवरफ्लो एक कुण्ड से होता हुआ, महादेव मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करता है. यहाँ से पानी पुन: कुण्ड में आता है और फिल्ट्रेशन की प्रक्रिया से गुज़रता हुआ नागफनी से गुज़रता है.

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जहाज़ महल

जहाज़ महल में प्रवेश करते ही लगता है की इसका यह नाम कैसे पड़ा. इसके एक ओर मुंज तालाब और दूसरी ओर कपूर तालाब. जहाज़ महल में वर्षा जल रमणीय फिल्ट्रेशन प्रणाली से होता हुआ सूरजकुंड में पहुंचता है . यह कुण्ड मुंज और कपूर तालाब के मध्य स्थित है. आवश्यकता पड़ने पर इसका पानी दोनों तालाबो में पहुँचाया जाता था. यहाँ गौरतलब है की मांडव में रहट प्रणाली के माध्यम से पानी उंचाई पर पहुँचाया जाता था और फिर इस पानी को गर्म पत्थरों से पर से गुज़ार कर स्नानगृह और स्विमिंग पूल में भेजा जाता था .

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चम्पा बावड़ी

हिंडोला महल के पास स्थित चम्पा के फूलो के आकर की 3 मंजिली चम्पा बावड़ी में पानी फ़िल्टर कर पहुंचाया जाता था और पत्थरों के पाइप के माध्यम से कमरों को वातानुकूलित बनाने में इसका प्रयोग किया जाता था. ऐसा कहा जाता है, आक्रमण के समय इसमें निर्मित गुप्त दरवाजों से मांडू के बाहर पहुंचा जा सकता था. यह भी कहा जाता है की रानियों की प्रसूति यहाँ होती थी. चम्पा बावड़ी में पानी का मुख्य स्त्रोत हिंडोला महल से संगृहीत वर्षा जल था.

गदाशाह के महल से पास स्थित उजाली व अँधेरी बावड़ी, सागर तालाब, समौती कुण्ड, रेवा कुण्ड, राजा हौज, भोर , लम्बा,मान, सिंगोडी, सैनिक चौकियो के 35 तालाब और बावडिया आदि असंख्य संरचनाये है जो माण्डव के स्वर्णिम वर्षा जल प्रबंधन के इतिहास का प्रत्यक्ष प्रमाण है. इतिहासकारों और विशेषज्ञों की माने तो माण्डव में इतना जल संरक्षण करने की क्षमता है की वह अपने साथ धार शहर की भी पूर्ण जल आपूर्ति कर सकता है.

क्या आपको नहीं लगता की शासन अगर नवीन जल आपूर्ति प्रणाली के स्थान पर अगर जीर्ण पड़ी माण्डव की जल संग्रहण प्रणाली का जीर्णोधार कर जल आपूर्ति का प्रबंध करे तो कम लगत में अधिक लाभ होने के साथ साथ एक सांस्कृतिक धरोहर का भी संरक्षण हो जायेगा.

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क्या बिना बिजली के फसलो की सिंचाई संभव है ?

 

यह एक आम धारणा बन गयी है की आदिवासी समाज पिछड़ा हुआ शोषित समाज है और इस समाज को मुख्य धारा में लाने की आवश्यकता है . देश के नीति निर्माता हमारे राजनेता भी कई दशको से यही राग अलापते आ रहें है, इसलिए शहरों में रहने वाली आबादी को भी यही लगता है की आदिवासी समाज को उन्नत करने के लिए उन्हें शिक्षित और विलायती तौर तरीके सिखाने की आवश्यकता है .

आदिवासी समाज को शायद ही किसी उन्नयन की आवश्यकता हो . इस बात का प्रमाण मध्यप्रदेश के धार जिले की डही तहसील के पडियाल और पीथनपुर  गाँव में देखने को मिलता है . यहाँ आदिवासीयों द्वारा विकसित की गयी सिंचाई तकनीक गुरत्वाकर्षण के नियम को धता बताती नज़र आती है . यहां पानी को आवश्यकता अनुसार मोड़ कर पहाड़ी पर स्थित अपने खेतों में बिना किसी आधुनिक उपकरण के पानी ले जाते है . इस तकनीक को यहां “पाट” प्रणाली कहा जाता है और हम इसे उद्ध्वंत सिंचाई या लिफ्ट इरीगेशन के नाम से जानते है .

हर किसी के मन में यह प्रश्न आयेगा की ऐसा करना तो लगभग ना मुमकिन है, बिना किसी उपकरण की मदद के,  गुरत्वाकर्षण के नियम के विरूद्ध पानी को कई मीटर ऊपर पहाड़ो को कैसे ले जाया जा सकता है ? पाट सिंचाई प्रणाली में नीचे की और बहाने वाले किसी नाले या नदी का चयन कर उस समभूमि की तलाश की जाती  है जो खेत की उंचाई के समानांतर हो . इस स्थान पर मिट्टी और पत्थरों की मदद से एक बाँध बनाया जाता है. पानी को रोकने की व्यवस्था कर लेने के बाद नालियों के माध्यम से किनारे किनारे खेत तक पानी ले जाया जाता है . यहां नालियों के निर्माण में आदिवासियों की अपकेंद्री और अभिकेन्द्री बल की नैसर्गिक समझ पानी को खेतो तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है . इन नालियों के निर्माण में जहां जहां बड़े गढ्डे आते है वहां पेड़ो के खोखले तनो को पाइप की तरह इस्तेमाल करके  पानी के लिए रास्ता बनाया जाता है .

इन नालियों को विकेन्द्रित कर छोटी नालियों के माध्यम के अलग अलग खेतों में पानी पहुँचाया जाता है . आपको यह जान कर हैरानी होगी की इस प्रणाली के माध्यम से 30 – 40 हार्सपाँवर की क्षमता के समकक्ष सिंचाई की जा सकती है, अर्थात एक 5 हार्सपाँवर की विद्युत मोटर 1 घंटे में 40,000 लीटर पानी उत्सर्जित करती है, तो इस प्रणाली से लगभग एक घंटे में 2,40,000 लीटर पानी एक घंटे में प्राप्त किया जा सकता है . सामन्यात: 1 हेक्टेयर में गेंहू, मक्का आदि फसलो को पूर्ण रूप से तैयार करने में 12 लाख लीटर पानी की आवश्यकता होती है . आप कल्पना कर सकते है की कृषि को सरल बनाने की यह कितनी युक्तिसंगत प्रणाली है .

अब आप स्वयं समझ सखते है किसे सिखाने और किसे सिखाने की आवश्यकता है ? कौन आधुनिक समाज में जी रहा है ? कौन प्रकृति को नुकसान पहुंचाये बिना विकास की और अग्रसर है ? पर दुःख इस बात का है की सिंचाई के वर्तमान साधनों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ साथ “पाट” प्रणाली को लुप्त होने की कगार पर पहुंचा दिया है . काश हमारे राजनेता प्राचीन प्रणालियों के माध्यम के सिंचाई की योजनाये विकसित करते तो शासन के पैसे का अपव्यय तो कम होता ही साथ ही साथ एक अत्यंत आधुनिक प्रणाली भी फलफूल रही होती .