जीवन कभी कभी आपको ऐसे चौराहे पर ला कर खड़ा देता है कि, आप यह तय नही कर पाते की आपको किस ओर जाना है । साथ ही साथ स्तिथि भी इतनी पेचीदा हो जाती है कि, आप मन की आवाज़ पर भी ध्यान नही दे पाते। हम अक्सर सुनते है कि, जब कोई रास्ता समझ ना आये तो मन की आवाज़ को सुने, पर हमारे स्वार्थ, हमारी ज़रूरते और हमारी भविष्य की चिंताएं कभी कभी इतनी गहरी होती है कि मन की आवाज़ वहां तक पहुंचने में दम तोड़ देती है।
लगभग 7 महीने बीतने वाले है, मैं समझ नही पा रहा हूँ कि मैं क्या कर रहा हूँ ? जब दिल्ली आया था तो सोचा था, की जो काम मुझे मिला है वह तो रात का है। रात में अपने व्यवसायिक दायित्वों के परिपालन के बाद में, दिन जो भी समय मिलेगा कुछ पढ़ने में, कुछ बुद्धिजीवी लोगो से मिलने में या कुछ समय दिल्ली में आयोजित होने वाली परिचर्चाओं में भागीदार हो कर ज्ञानार्जन करूँगा । पर यहां जो भी हुआ, मेरी आशाओं के विपरीत ही था । यहां मैं कुछ ऐसा उलझा कि, सारे समिकरण ही बदल गए, अपनी अभिरुचियों के लिए समय निकालना तो दूर, मुझे अब खुद के लिए भी समय नही मिलता ।
क्या मैं खुद के साथ इंसाफ कर रहा हूँ ? क्या मैं हमेशा से यह ही करना चाहता था ? क्या इसलिये मैं अपना सब कुछ छोड़ कर दिल्ली आया था ?
बहुत से सवाल है मन में, पर इतना कोलाहल है कि, कुछ सुनाई ही नही देता ।